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UP की टीम-11 को सब पता है... अमित मोहन जी! आपका ये जवाब हमें हमेशा याद रहेगा

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उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को लेकर हर रोज नए-नए दावे किए जा रहे हैं। अखबारों में बड़ा-बड़ा छपवाया जा रहा है कि सब ठीक है, ना ऑक्सीजन की कमी है और ना ही बेड की। लेकिन हकीकत इन कागजी दावों से कोसों दूर है। राजधानी लखनऊ ही नहीं, बल्कि सूबे के हर जिले की यही हालत है। कागजों में सब अच्छा है, लेकिन हकीकत में लोग इधर से उधर भागने दौड़ने को मजबूर हैं। हेल्पलाइन नंबर पर सिर्फ आश्वासन मिलता है, जो कन्ट्रोल रूम के प्रभारी हैं, वो फोन नहीं उठाते, जब कोई ऑप्शन नहीं दिखता है तो लोग मीडिया के पास जाते हैं। इस उम्मीद में कि शायद वो कुछ मदद कर पाएं।

यूपी से हर रोज हमारे पास भी ऐसे मामले आ रहे हैं। कोई ऑक्सीजन मांगता है तो पता करते हैं कि कहां उपलब्ध है, कई बार व्यवस्था हो जाती है और कई बार नहीं हो पाती है। कोई इंजेक्शन या दवा की खोज में फोन लगाता है तो उसकी व्यवस्था उस जिले से न हुई तो पड़ोसी जिले से करा दी जाती है, कोई खाने के लिए फोन लगाता है तो उसके लिए समाजसेवियों से संपर्क करके भोजन उपलब्ध कराया जाता है। लेकिन बेड का क्या करें? बेड तो नहीं बना सकते, प्रशासन से ही बात करनी पड़ेगी। कोशिश करते हैं लेकिन कुछ हाथ नहीं लगता, फिर कुछ और लोगों से व्यवस्था करने को कहते हैं, शायद वो सिस्टम का हिस्सा हैं। लापरवाही हर स्तर पर है लेकिन रविवार रात जो हुआ वो शायद मेरे लिए सबसे बुरा अनुभव था।

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देर रात एक मैसेज आया कि एक 34 साल का लड़का, उसे ऑक्सीजन बेड चाहिए। 5 दिन से परेशान है, लेकिन नहीं मिल रहा, अब हालत बिगड़ रही है। मैसेज पढ़ते ही मन परेशान हो गया। 34 साल उम्र ही क्या होती है? मेरे हमउम्र, कितनी जिम्मेदारियां होंगी, कितनी अपेक्षाएं होंगी… लगातार आ रही बुरी खबरों से मन आशंकाओं से भर गया। रात का करीब 10:30 बज रहा था तो सबसे पहले कोविड हेल्पलाइन पर फोन करके जानने की कोशिश की , कि लखनऊ में बेड कहां उपलब्ध हैं, वहां से जवाब मिला कि आप नंबर बताइए, फिर डॉक्टर का कॉल आएगा और वो रेफर करेंगे। पूछा गया कि कितना टाइम लगेगा तो जवाब मिला कि कह नहीं सकते, 48 घंटे में हो जाना चाहिए। लेकिन क्या कोई गंभीर मरीज 48 घंटे अपनी मौत से दूर भाग सकता है? इस सवाल ने मुझे परेशान कर रखा था।

इसके बाद सबसे पहले लखनऊ के सीएमओ के नंबर पर 17 बार फोन किया लेकिन फोन नहीं उठा। फिर लखनऊ के जिलाधिकारी के सीयूजी नंबर पर फोन किया तो 9वीं बार में फोन उठा। उधर से बताया गया कि फोन जिलाधिकारी कैंप आवास के लैंडलाइन पर पहुंच गया है, यानी कॉल डायवर्ट की गयी थी। वहां के कर्मचारी ने दो नंबर दिये। एक नंबर डॉ. रवि का बताया गया जो 9818773866 था, और दूसरा नंबर 8005192677 ये था। कहा गया कि उस कर्मचारी को निर्देश दिए गए हैं कि अगर किसी का फोन आता है तो ये नंबर दे दिए जाएं। बड़ी आशा से दोनों को फोन किया लेकिन नंबर बंद थे।

इसबीच लखनऊ के रिपोर्टर हेमेन्द्र त्रिपाठी से भी मदद मांगी। उन्होंने बताया कि डीएम आवास से उन्हें भी दो नंबर दिए गए हैं। एक डॉ. रवि का और दूसरा डॉ. संजय का, जो था 9451951233। वो दोनों नंबर भी ऑफ थे। कन्ट्रोल रूम के कई अन्य डॉक्टरों और अधिकारियों को फोन किए लेकिन किसी ने फोन नहीं उठाया। एक दिन पहले जिन 55 अस्पतालों की लिस्ट जारी की गई थी, उनकी हकीकत का खुलासा भी हम कर चुके थे। इसके बाद मजबूरी में UP की टीम-11 के जानेमाने चेहरे और ACS चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अमित मोहन को फोन किया। शायद नींद में थे, मामला बताया तो अमित मोहन का जवाब था, ‘अस्पतालों में ही पता करना होगा, जब कमांड सेंटर से अलॉट होता था तो लोग कहते थे कि सीएमओ रेफरल गलत चीज है, इसे खत्म कर दिया गया है। अब अस्पताल से सीधा संपर्क करें। फोन डायरेक्टरी देखें, मैं थोड़े ना आपको फोन नंबर दूंगा।’

आप कल्पना करिए कि सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था का सबसे जिम्मेदार अफसर क्या जवाब दे रहा है। उसे लगता है कि अगर प्राइवेट अस्पतालों के नंबर जारी कर दिए गए तो उसकी जिम्मेदारी खत्म हो गई। मैं हैरान था, किसी तरह आंसुओं पर काबू पाया। लेकिन एक सवाल जिसका जवाब मैं खोज रहा हूं कि सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी तक क्या सूबे की जमीनी हकीकत बीजेपी के कार्यकर्ता नहीं पहुंचाते होंगे? घर-घर तक पहुंच रहने वाला बीजेपी का संगठन क्यों इस मुश्किल वक्त में खामोश है? क्यों हकीकत सूबे के मुखिया को नहीं बताई जा रही? आखिर कब हमारे नेताओं और अधिकारियों को दायित्वबोध होगा?


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